लहरों सा शंकित मन
द्विध्रुवीय समय- प्राचीन और नूतन,
बीच मे रह गया है काल का झीना वसन.
ताने बाने को तोडता जाता अतृप्त मन
युग बदला.
मन की ऊंची उड़ान
धरातल न छोडते पैरों के निशान
ऎसे हो जाता है परिवर्तन का द्वन्द ज्ञान
युग बदला
प्रतीक्षा का लम्बा काल बन चुका निमेष
कम्पित हाथों लिखे अक्षर रहे न शेष
भावों का कर जाते हस्तगत अधिशेष
इमेल पर संदेश
युग बदला
विशलेषण चीर फाड़
मानस पर अंकित विचार
काल अपनी लेखनी से करता जाता सुधार
चेतना का आश्वासन
संगत है ये व्यापार
युग बदला
बेड़ियों को पिघलाता
मेरा स्वच्छंद मन
टीसों को पी जाता
कर जाता विच्छेदन
विद्रोही क्यों करे
प्यास का दमन
युग बदला
जनवरी
14
2012
behetarin kavita ,,,,,,swakh bhao ka guncha…….
धन्यवाद राहुल जी
bahut sundar rachna dixit ji …
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद उपेन्द्र जी.आपकी कविताएं पढता हूं. बहुत अच्छा लिखते हैं आप प्रेरणा मिलती है